ये नौबत आयी ही क्यों?
एक के बाद एक साहित्यकारों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने को लेकर घमासान मचा हुअा है। लेखकों-साहित्यकारों के इस रुख पर भाजपा के साथ ही वैसे लोग भी कीचड़ उछाल रहे हैं जिनका वास्ता न तो साहित्य से है और न ही साहित्य अकादमी से।
साहित्यकारों को लेकर भाजपा नेताअों के बयान उनकी बदहवासी को दर्शाते हैं। अगर भाजपा के नेता यह मानते हैं कि साहित्य अकादमी से केंद्र सरकार का कोई लेनादेना ही नहीं है तो फिर पुरस्कार लौटाने पर उनकी छाती में दर्द क्यों हो रहा है? भाजपा नेताअों को इस पर टिप्पणी करनी ही नहीं चाहिए थी और टिप्पणी की भी तो कितनी ओछी ! पुरस्कार लौटाने वालों को कांग्रेस का एजेंट तक कह दिया। कांग्रेस की सरकार में हुए निर्भया कांड, मुजफ्फरनगर दंगे व अन्य घटनाअों की याद दिलाते हुए भाजपा नेताअों ने सवाल किया कि इन घटनाअों पर साहित्यकारों की छाती क्यों नहीं फट गयी। भाजपा के ये नेता यहीं पर नहीं रुके दो कदम और आगे बढ़कर उन्होंने यह भी कह दिया कि जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया उन्हें कांग्रेस की सरकार में पुरस्कार दिया गया था जबकि वे इसके योग्य ही नहीं थे, इसलिए अब वे इसे लौट रहे हैं। भाजपा नेताअों के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए समाज के कुछ स्वनामधन्य लोगों ने तो यह तक कह दिया कि बुढ़ौती में गुमनामी की जिंदगी जी रहे साहित्यकारों ने सस्ती लोकप्रियता के लिए ऐसा किया है।
अच्छी बात है कि साहित्यकारों की तरफ से इन टिप्पणियों पर जवाबी टिप्पणी नहीं की गयी। मगर जिस तरह से इस विवाद में भाजपा नेता व केंद्रीय मंत्री तक कूद गये हैं इससे साफ है कि दाल में कुछ काला तो जरूर है। जब साहित्य अकादमी का केंद्र सरकार से कोई वास्ता ही नहीं है तो केंद्र सरकार को भला इस विवाद में कूदने की जरूरत ही क्या थी?
दूसरी बात यह कोई भी पूरे दावे के साथ नहीं कह सकता कि साहित्य अकादमी में केंद्र सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। साहित्य अकादमी की जनरल कौंसिल में 5 सदस्य केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत होते हैं। इनमें संस्कृति मंत्रालय, सूचना व प्रसारण मंत्रालय, नेशनल बुक ट्रस्ट व अन्य विभागों के अफसर शामिल होते हैं। फिर भला यकीन के साथ कोई कैसे यह दावा कर सकता है कि साहित्य अकादमी में केंद्र सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है।
असल में लेखकों का गुस्सा साहित्य अकादमी पर इसलिए है कि कन्नड़ लेखक व तर्कवादी एमएम कलबुर्गी की निर्मम हत्या किये जाने पर साहित्य अकादमी की तरफ से कोई बयान नहीं दिया गया। सरकार से साहित्यकार इसलिए नाराज हैं कि दादरी कांड, गुलाम अली मुद्दे को लेकर दुनियाभर में भारत की छीछालेदर हो रही है जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीरो की तरह बांसुरी बजाने में व्यस्त हैं। मैराथन बोलते रहने और दमदार तरीके से अपनी बात रखने के लिए मशहूर नरेंद्र मोदी इन मुद्दों पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं, यह सवाल तो देश की जनता भी कर रही है, साहित्यकारों ने ये सवाल पूछ लिया तो कौन-सा अपराध कर दिया? वैसे भी यह पूछने की नौबत आयेगी ही क्यों ? घंटों लच्छेदार भाषण देने वाले प्रधानमंत्री मोदी को यह क्यों नहीं महसूस हुअा कि दादरी में बीफ रखने के संदेह में एक मुसलमान की पीट-पीटकर हत्या कर दिये जाने से साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ा है और साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने के लिए उन्हें बयान देना चाहिए? उल्टे उनकी पार्टी के नेता यह कहकर पल्ला झाड़ रहे रहे हैं कि कांग्रेस की सरकार में इससे भी बड़े कांड हुए हैं। एनडीए सरकार के एक मंत्री ने तो इसे छोटी घटना करार दिया है। क्या जनता ने इसलिए भाजपा को वोट दिया था कि कांग्रेस की सरकार में जो कांड हुए, उनकी पुनरावृत्ति भाजपा की सरकार में भी हो?
बहरहाल इस बवंडर से बचा जा सकता था। जब उदय प्रकाश ने पुरस्कार लौटाया तब साहित्य अकादमी के रहनुमाअों को चाहिए था कि वे उनसे मुलाकात कर उनकी बात सुनते और एहतियाती कदम उठाते। दादरी कांड पर केंद्र सरकार की तरफ से स्वतःस्फूर्त बयान अाना चाहिए था। कम से कम मोदी जी से तो इतनी उम्मीद अपेक्षित थी।
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