Saturday 31 October 2015


उजला ही उजला शहर होगा,  जिसमें हम-तुम बनायेंगे घर
दोनों रहेंगे कबूतर-से,  जिसमें होगा न बाजों का  डर
मखमल की नाजुक दीवारें भी होंगी
कोनों में बैठी बहारें भी होंगी
खिड़की की चौखट भी रेशम की होगी
चंदन से लिपटी हाँ सेहन भी होगी
संदल की खुश्बू भी टपकेगी छत से
फूलों का दरवाजा खोलेंगे झट से
डोलेंगे महकी हवा के हाँ झोंके
आंखों को छू लेंगे गरदन भींगो के
आंगन में बिखरे पड़े होंगे पत्ते
सूखे-से नाजुक-से पीले छिटक के
पाँवों को नंगा जो करके चलेंगे
चड़-पर की आवाज-से वो बजेंगे
कोयल कहेगी कि मैं हूँ सहेली
मैना कहेगी नहीं तू अकेली
बत्तख भी चोंचों में हँसती-सी होगी
बगुले कहेंगे सुनो अब उठो भी
हम फिर भी होंगे पड़े आंख मूंदे
कलियों की लड़ियाँ दिलों में हाँ गूंदे
ढूंढेंगे उस पार के उस जहाँ को, जाती है कोई डगर
चांदी के तारों से रातें बुनेंगे तो चमकीली होगी सहर
उजला ही उजला शहर होगा जिसमें हम तुम बनायेंगे घर।
आओगे थककर जो हाँ साथी मेरे
कांधे पे लूँगी टिका साथी मेरे
बोलोगे तुम जो भी हाँ साथी मेरे
मोती-सा लूंगी उठा साथी मेरे
पलकों के कोरों पे आये जो आंसू
मैं क्यों डरूंगी बता साथी मेरे  
उंगली तुम्हारी तो पहले से होगी
गालों पे मेरे तो हाँ साथी मेरे
तुम हँस पड़ोगे तो मैं हँस पड़ूंगी
तुम रो पड़ोगे तो मैं रो पड़ूंगी
लेकिन मेरी बात एक याद रखना
मुझको हमेशा ही हाँ साथ रखना
जुड़ती जहाँ ये जमीं आसमां से
हद हाँ हमारी शुरू हो वहाँ से
तारों को छू लें जरा-सा संभल के
उस चाँद पर झट-से जायें फिसल के
बह जायें दोनों हवा से निकल के
सूरज भी देखे हमें और जल के
होगा नहीं हमपे मालूम साथी
दीन-ओ-जहाँ का असर, दीन-ओ-जहाँ का असर
राहों को राहें बतायेंगे साथी, ऐसा हाँ होगा सफऱ
उजला ही उजला शहर होगा जिसमें हम-तुम बनायेंगे घर
दोनों रहेंगे कबूतर-से जिसमें होगा न बाजों का डर।
                        -पीयूष मिश्रा की एक नज्म

No comments:

Post a Comment